तो विधानसभाएं हैं किसलिए?
संसदीय लोकतंत्र में विधायिका सत्ता की जवाबदेही और उसके कामकाज में पारदर्शिता को सुनिश्चित करती है। लेकिन अगर विधायिका यह कार्य ना करे, या उसे ऐसा ना करने दिया जाए, तो क्या इस अपेक्षा पर कुठाराघात नहीं होगा?
लोकतंत्र के खिलाफ एक तर्क यह है कि इस सिस्टम को चलाना बहुत महंगा पड़ता है। लेकिन उसका तार्किक जवाब यह है कि चूंकि इस व्यवस्था में सत्ता पर नियंत्रण रखना, उसके कामकाज की पारदर्शिता और जवाबदेही तय करना संभव होता है, इसलिए दीर्घकाल में इसे चलाने के लिए हुआ खर्च सार्थक एवं लाभदायक साबित होता है।
इससे सरकारी फैसलों में जन हित को केंद्र में रखना मुमकिन होता है। साथ ही चूंकि निर्णय आम सहमति से होते हैं, इसलिए सिस्टम को स्थिर एवं टिकाऊ बनाना संभव होता है। और सारा कार्य विधायिका के जरिए होता है। लेकिन अगर विधायिका यह कार्य ना करे, तो क्या उपरोक्त अपेक्षाओं पर कुठाराघात नहीं होगा? यह प्रश्न भारत में विधायिकाओं की लगातार गिर रही भूमिका के कारण प्रासंगिक हो उठा है। अगले महीने पांच राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। एक ताजा रिपोर्ट से इन पांचों विधानसभाओं के बीते पांच साल में रहे रिकॉर्ड के बारे में जानकारी मिली है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने नाम की संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक इन राज्यों में सालाना 30 दिन से भी कम विधानसभा की बैठकें हुईं। राजस्थान में बैठकें साल में औसतन 29 दिन, छत्तीसगढ़ में 23 दिन, मिजोरम में 18 दिन, मध्य प्रदेश में 16 दिन और तेलंगाना के लिए यह संख्या 15 रहीं। खुद समझा जा सकता है कि एक वर्ष में अगर इतनी कम बैठकें हों, तो विधानसभाओं ने अपनी जिम्मेदारी किस हद तक निभाईं? यह भी गौरतलब हैकि छत्तीसगढ़ में बैठक का औसत समय प्रति दिन महज पांच घंटे का रहा, वहीं मध्य प्रदेश में औसतन चार घंटे चली। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के इस विश्लेषण के मुताबिक मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में 1952 से 2022 के बीच बैठकों के औसत दिनों में लगातार कमी आई है। यह गौरतलब है कि इन पांचों राज्यों की विधानसभाओं लगभग 48 प्रतिशत विधेयकों पर उसी दिन या पेश होने के अगले दिन विचार किया गया और उसे पारित भी कर दिया गया। तो देर-सबेर यह सवाल उठेगा कि अगर विधानसभाएं इस तरह चलनी हैं, तो उनकी जरूरत ही कितनी बची है?