विपक्षी गठबंधन की चुनौतियां
अजीत द्विवेदी
भाजपा को हराने के लिए एक साथ चुनाव लडऩे की तैयारी कर रही पार्टियां अब 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरू में मिलेंगी। इसके दो दिन के बाद संसद का मॉनसून सत्र शुरू होगा। सो, एक तरह से विपक्षी पार्टियों की बैठक संसद सत्र की रणनीति बनाने का आभास दे रही है। पहले यह बैठक 12 जुलाई को शिमला में होनी थी। शिमला से बैठक क्यों टली, इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है, जबकि पटना में हुई पहली बैठक से पहले कांग्रेस चाहती थी कि पहली बैठक शिमला में हो। पहली बैठक तो नहीं हुई, दूसरी बैठक भी शिमला की बजाय बेंगलुरू में होगी। हो सकता है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े अपनी अध्यक्षता में होने वाली पहली बैठक अपने गृह प्रदेश में चाहते हों, इसलिए बेंगलुरू का चुनाव किया गया हो। यह भी संभव है कि शिमला की चार सीट की बजाय कर्नाटक में 28 लोकसभा की सीटें हैं इसलिए उसे ज्यादा तरजीह दी जाए।
बहरहाल, यह ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं है कि कब और कहां विपक्षी पार्टियों की बैठक होती है। असली सवाल यह है कि बैठक का मुद्दा क्या है? किस एजेंडे पर विपक्षी पार्टियां मिल रही हैं? क्या विपक्षी पार्टियों के नेताओं का कोई ऐसा औपचारिक समूह बना है, जो मुख्य बैठक से पहले आपस में गठबंधन के मुद्दों पर चर्चा करता हो? आमतौर पर किसी भी बड़े कार्यक्रम या बड़े अभियान से पहले ऐसे कई छोटे छोटे समूह बनते हैं, जहां बारीकियों पर चर्चा होती है। पहली बैठक तक तो ठीक था लेकिन दूसरी बैठक भी बिना किसी एजेंडे के नहीं हो सकती है। यह नहीं हो सकता है कि पार्टियों के नेता बैठें, एक-दूसरे का हाल-चाल जानें, शादी वगैरह की बात करें और अगली बार फिर मिलने का वादा करके उठ जाएं। दूसरी बैठक में कुछ ठोस मामले तय होने चाहिए और बैठक के बाद आम लोगों को यह मैसेज जाना चाहिए कि विपक्षी पार्टियां पटना से आगे बढ़ी हैं।
ध्यान रहे पटना में हुई बैठक से पहले भी विपक्षी पार्टियों के सामने कम चुनौतियां नहीं थीं। लेकिन उस बैठक से जो सकारात्मक मैसेज बना उसके बाद चुनौतियां बढ़ गई हैं। ये चुनौतियां कई तरह की हैं। 23 जून की बैठक से लेकर जुलाई के पहले हफ्ते तक के घटनाक्रम पर नजर डालें तो चुनौतियों की तस्वीर साफ होती है। इस दौरान महाराष्ट्र में एनसीपी सुप्रीमो और मराठा क्षत्रप शरद पवार की पार्टी टूट गई। उनके भतीजे अजित पवार एनसीपी के कुछ विधायकों को साथ लेकर भाजपा के साथ चले गए और उप मुख्यमंत्री बन गए। संभावित विपक्षी गठबंधन के एक बड़े दल का इस तरह से टूटना समूचे विपक्ष को प्रभावित करेगा। दूसरी घटना यह हुई कि केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई ने राजद नेता और बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को जमीन के बदले रेलवे में नौकरी दिलाने के कथित घोटाले में आरोपी बना दिया। अपनी दूसरी चार्जशीट में केंद्रीय एजेंसी ने बतौर आरोपी तेजस्वी का नाम शामिल किया। तीसरी घटना यह हुई कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी में जम कर जुबानी जंग हुई। चौथी घटना यह हुई कि राहुल गांधी ने तेलंगाना के खम्मम में रैली की और मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव पर हमला करते हुए कहा कि कांग्रेस उनके साथ कभी तालमेल नहीं करेगी। पांचवीं घटना यह हुई कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हैदराबाद जाकर चंद्रशेखर राव से मुलाकात की। छठी घटना यह है कि अध्यादेश के मसले पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच लड़ाई तेज हो गई है और सातवीं व सबसे अहम घटना यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता की खुल कर वकालत की है।
सोचें, 10 दिन के अंदर ये सारी घटनाएं हुई हैं। इनसे जाहिर होता है कि विपक्षी पार्टियों के सामने कितनी तरह की चुनौतियां हैं। एक तरफ उन्हें भाजपा के ऑपरेशन लोटस से बचना है तो दूसरी ओर केंद्रीय एजेंसियों की जांच का सामना करना है। इसके बाद आपस में तालमेल बनाना है और भाजपा की ओर से तय किए जा रहे एजेंडे का मुकाबला करने के लिए अपना एजेंडा तय करना है। महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद बिहार और झारखंड में चिंता है। दोनों राज्यों में विपक्ष की पार्टियां निशाने पर हैं। कर्नाटक में जेडीएस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने कहा है कि उनके राज्य में भी महाराष्ट्र जैसा घटनाक्रम होगा। उन्होंने कहा कि यह देखना दिलचस्प होगा कि कर्नाटक का अजित पवार कौन होता है। इस समय विपक्षी पार्टियों के सामने नंबर एक चुनौती यही है। कैसे अपनी पार्टी को टूटने से बचाएं और एकजुट रह कर मजबूती का अहसास कराएं। विपक्ष को इसकी रणनीति बनानी चाहिए और जहां भी एक दूसरे को मदद करनी चाहिए।
विपक्ष की सारी पार्टियों को साथ लाने की चुनौती का जहां तक सवाल है तो ऐसा लग रहा है कि तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति और आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस और अन्य पार्टियों का तालमेल मुश्किल होगा। इसे तीसरे मोर्चे की संभावना के दौरे पर देखें तो यह एक बड़ी चुनौती होगी। हालांकि विपक्ष के लिए अच्छी बात यह होगी कि आम आदमी पार्टी को छोड़ कर बाकी पार्टियां सिर्फ अपने असर वाले राज्यों में ही लड़ेंगी।
विपक्ष के मुख्य मोर्चे से इनका आमना-सामना नहीं होगा। इसलिए इन पर माथापच्ची करने से पहले उन पार्टियों के बीच तालमेल होना चाहिए, जिनके बीच पहले से गठबंधन है। जो आपस में मिल कर लडऩे में सहज हैं और जिनके बीच सीटों के बंटवारे में ज्यादा दिक्कत नहीं आनी है। जो पार्टियां पिछले चुनावों में साथ मिल कर लड़ीं है उनको अपना गठबंधन बना लेना चाहिए क्योंकि उनको सीट बंटवारे का कोई नया फॉर्मूला तय नहीं करना है। उसके बाद दूसरी पार्टियों से बात करनी चाहिए। उनसे अगर बात हो भी जाती है तो सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर दिक्कत आएगी। यह सवाल उठेगा कि पिछले लोकसभा चुनाव के वोट प्रतिशत के आधार पर सीट बंटवारा हो या राज्यों के विधानसभा चुनावों के वोट प्रतिशत के आधार पर तालमेल हो? विपक्षी पार्टियां अगर सिर्फ अंकगणित के चक्कर में उलझती हैं तो ज्यादा फायदा नहीं होगा। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 37.6 फीसदी वोट मिले थे और पटना में जो 15 पार्टियां इक_ा हुई थीं उन सबको मिला कर 37.3 फीसदी वोट थे। यानी भाजपा बनाम 15 पार्टियों के वोट में भी 0.3 फीसदी वोट से भाजपा आगे है।
पिछले लोकसभा चुनाव में 226 सीटें ऐसी थीं, जिन पर भाजपा एक लाख से ज्यादा वोट के अंतर से जीती थी। इसलिए अगर नंबर्स के हिसाब से देखें तो भाजपा का पलड़ा अब भी भारी है। इसका कारण यह है कि 15 विपक्षी पार्टियों में से ज्यादातर ने अलग अलग चुनाव लड़ा था। अलग अलग चुनाव लड़ कर उनके जितने वोट मिले हैं एक साथ लड़ कर वे उतने वोट ले पाएंगे इसमें संदेह है। एक साथ लडऩे पर उनका साझा वोट कम हो सकता है तो दूसरी ओर ध्रुवीकरण की स्थिति में भाजपा का वोट बढ़ भी सकता है। हालांकि भाजपा के खिलाफ डबल, ट्रिपल इंजन की सरकार और 10 साल शासन की एंटी इन्कम्बैंसी भी है और हो सकता है कि सत्ता विरोधी वोट विपक्षी गठबंधन की ओर जाए।