मध्य प्रदेश में कांग्रेस का आत्मविश्वास
हरिशंकर व्यास
राजस्थान को लेकर कांग्रेस का भरोसा देर से बना है लेकिन मध्य प्रदेश में कांग्रेस चुनाव शुरू होने के पहले से ही अति आत्मविश्वास में है। कांग्रेस के नेता इस बार चुनाव यह मान कर लड़ रहे हैं कि उन्हें सरकार बनानी है। कांग्रेस को लग रहा है कि पिछले चुनाव में जहां तक वह पहुंची थी उससे आगे बढऩा है। कांग्रेस के इस आत्मविश्वास के कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि भाजपा ने बीच में उसकी सरकार गिराई। पिछली बार कांग्रेस चुनाव जीती थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस का वोट भाजपा से थोड़ा कम था लेकिन उसकी सीटें ज्यादा थीं। यह भी एक तथ्य है कि कांग्रेस का वोट करीब पांच फीसदी बढ़ा था वह 36 फीसदी से बढ़ कर 40.89 फीसदी पहुंची थी और उसकी सीटें 56 से बढ़ कर 114 हो गई थीं। दूसरी ओर भाजपा का वोट करीब 45 फीसदी से घट कर 41 फीसदी हो गया था और उसकी सीटें 165 से घट कर 109 हो गई थीं। इसका मतलब है कि कांग्रेस क्लीयर विनर थी।
लोगों ने भाजपा को हरा कर विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया था। लेकिन सवा साल के अंदर भाजपा ने कांग्रेस विधायकों को तोड़ कर अपनी सरकार बना ली। प्रदेश की जनता ने जिनको हराया था वे फिर सरकार में लौट आए। सो, कांग्रेस को लग रहा है कि इससे उसके प्रति सहानुभूति है और लोग इस बार पहले से ज्यादा वोट करेंगे। उसे छप्पर फाड़ बहुमत देंगे ताकि उसकी सरकार न गिरे। दूसरा कारण, भाजपा के खिलाफ एंटी इन्कम्बैंसी है। कांग्रेस के सवा साल के राज को छोड़ दें तो 2003 से 2023 तक लगभग 19 साल तक भाजपा सरकार में रही है और इसमें भी 16 साल शिवराज सिंह चौहान ही मुख्यमंत्री रहे। ऊपर से पिछले साढ़े नौ साल से केंद्र में भाजपा की सरकार है। इसका मतलब करीब आठ साल डबल इंजन की सरकार चली है। भाजपा उम्मीदवारों के खिलाफ इससे डबल एंटी इन्कम्बैंसी बनी है।
पिछले चुनाव में सरकार से बहुत नाराजगी नहीं होने के बावजूद लोग हर जगह कह रहे थे कि तवे पर रोटी को बार बार उलटते रहना चाहिए। इस बार ऐसी सोच पहले से ज्यादा है। शिवराज सिंह चौहान से भयंकर नाराजगी नहीं होने के बावजूद यह सोच है। तीसरा कारण, भाजपा की नई रणनीति है। मध्य प्रदेश में भाजपा ने एक प्रयोग के तहत सात सांसदों को चुनाव मैदान में उतार दिया, जिनमें से तीन केंद्रीय मंत्री हैं। इसके अलावा पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को भी चुनाव लड़ाया जा रहा है। इसक साथ ही भाजपा ने जो चुनाव अभियान शुरू किया उसकी थीम यह रखी कि ‘एमपी के मन में बसे हैं मोदी और मोदी के मन में एमपी बसा है’। सबको पता है कि मन में कितना भी बसा हो मोदी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बनने वाले हैं। फिर कौन बनेगा मुख्यमंत्री? जबकि यही सवाल भाजपा हर जगह कांग्रेस से कहती रही है कि उसकी बारात तो बिना दूल्हे के है लेकिन मध्य प्रदेश में यह सवाल उससे पूछा जा रहा है। ढेर सारे बड़े नेताओं के चुनाव लडऩे से और कंफ्यूजन बना। सांसदों को चुनाव लड़ाने से टिकट बंटवारे का समीकरण भी बदला। कई जगह बागी उम्मीदवार खड़े हैं, जिन्हें कोई मनाने वाला नहीं है।
चौथा कारण, ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके साथ गए दूसरे विधायकों के ‘विश्वासघात’ का है। कांग्रेस इसे बड़ा मुद्दा बना रही है। प्रियंका गांधी वाड्रा ने इसे लेकर ज्योतिरादित्य पर बड़ा हमला किया। कांग्रेस इस मुद्दे को जनता के बीच ले जा रही है और पार्टी छोडऩे वालों को हराने की अपील कर रही है। हालांकि राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद हुए उपचुनाव में ज्यादातर विधायक फिर से जीत गए थे लेकिन इस बार कांग्रेस को उम्मीद है कि लोग उन्हें सजा देंगे। कांग्रेस छोडऩे वाले विधायकों की वजह से कांग्रेस को एक फायदा यह दिख रहा है कि उन विधायकों और नेताओं से भाजपा का क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ा है। उसके पुराने नेता नाराज हुए हैं और वे कांग्रेस से आए नेताओं को हरवाने के लिए काम कर रहे हैं।
पांचवां कारण, कांग्रेस की अपनी तैयारियां हैं। प्रदेश कांग्रेस के दोनों शीर्ष नेता कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पूरी तरह से एकजुट होकर चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों ने चुनाव लडऩे की साझा रणनीति बनाई और एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में कांग्रेस के लिए सबसे मुश्किल 66 सीटों की जिम्मेदारी लेकर दिग्विजय सिंह ने वहां का चुनाव संभाला। पूरे राज्य में टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार की रणनीति में पार्टी एकजुट दिखी। पारंपरिक राजनीति और चुनाव प्रबंधन की टीम दोनों का समान रूप से इस्तेमाल किया गया। ऊपर से सट्टा बाजार में पहले दिन से कांग्रेस का भाव ऊपर चल रहा है। हालांकि वहां कांग्रेस और भाजपा में ज्यादा अंतर नहीं दिखता है लेकिन जमीनी फीडबैक के आधार पर कांग्रेस बड़े बहुमत के साथ सरकार बनाने के भरोसे में है।