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ब्रिक्स की शिखर बैठक

उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले ब्रिक्स के बाहर के कम-से-कम 23 देशों ने इस समूह से जुडऩे की अर्जी दी है। कयास गया है कि नए रूप में ब्रिक्स अगर एक स्वायत्त व्यापार व्यवस्था कायम करने की तरफ बढ़ा, तो उससे मौजूदा व्यवस्थाएं कमजोर होंगी। पांच देशों- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका- के समूह ब्रिक्स की शिखर बैठक को लेकर जैसी जिज्ञासा अभी देखने को मिल रही है, वैसा 15 साल के इस समूह के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। पश्चिमी मीडिया में महीनों से यह चर्चा सुर्खियों में रही है कि मंगलवार को दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहानेसबर्ग में शुरू हो रहे तीन दिन के शिखर सम्मेलन से दुनिया पर पश्चिमी वर्चस्व के लिए एक नई चुनौती खड़ी होगी।

हालांकि ब्रिक्स देशों ने लगातार यह स्पष्टीकरण दिया है कि यह समूह महज आपसी आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने का मंच है और इसे हार-जीत की सोच के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी मीडिया में इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। चूंकि जोहानेसबर्ग में एक बड़ा मुद्दा ब्रिक्स समूह के विस्तार है, इसलिए पश्चिमी देशों के कान खड़े हुए हैं। उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले ब्रिक्स के बाहर के कम से कम 23 देशों ने इस समूह से जुडऩे की अर्जी दी है। इनमें सऊदी अरब जैसा धनी और तेल समृद्ध देश भी शामिल है।

इससे यह कयास गया है कि नए रूप में ब्रिक्स अगर एक स्वायत्त व्यापार एवं मौद्रिक व्यवस्था कायम करने की तरफ बढ़ा, तो उससे दूसरे विश्व विश्व युद्घ के बाद से चल रही व्यवस्थाएं कमजोर होंगी। बेशक उन व्यवस्थाओं पर अमेरिका का नियंत्रण रहा है। इसके अलावा ब्रिक्स की अपनी करेंसी शुरू करने की चर्चा भी रही है, हालांकि अब संकेत हैं कि यह मुद्दा इस बार एजेंडे पर नहीं है। इसके बजाय ब्रिक्स देश आपसी मुद्राओं में अपने अंतरराष्ट्रीय लेन-देने के भुगतान को बढ़ावा देने पर जोहानेसबर्ग में विचार करेंगे। यह चलन जितना बढ़ेगा, निर्विवाद रूप से उससे अमेरिकी डॉलर का दबदबा कमजोर होगा। यह भी निर्विवाद है कि ब्रिक्स के भीतर चीन की एक प्रभावशाली उपस्थिति है। इस कारण विस्तृत होता ब्रिक्स मंच चीन का प्रभाव रोकने की पश्चिम की कोशिश के विपरीत दिशा में जाएगा। तो कुल मिला कर इस पृष्ठभूमि के बीच ब्रिक्स शिखर सम्मेलन शुरू हो रहा है। लाजिमी है कि वहां होने वाली चर्चाओं और उनके संभावित परिणामों पर दुनिया की निगाह टिकी हुई है।

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